आर्सेनिक क्या है?

आर्सेनिक (As) एक गंधहीन और स्वादहीन उपधातु है जो ज़मीन की सतह के नीचे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

प्रकृति में आर्सेनिक किन-किन रूपों में उपलब्ध है?
आर्सेनिक और इसके यौगिक रवेदार (क्रिस्टेलाइन), पाउडर और एमोरफस या काँच जैसी अवस्था में पाये जाते हैं। यह सामान्यतः चट्टान, मिट्टी, पानी और वायु में काफी मात्रा में पाया जाता है। यह धरती की तह का प्रचुर मात्रा में पाए जाना वाला 26वाँ तत्व है।
आर्सेनिक के सेहत पर प्रभाव क्या-क्या हैं?
आर्सेनिक की वजह से कई बीमारियाँ होती हैं और कई बीमारियों का खतरे की गम्भीरता बढ़ जाती है। उदाहरण के तौर पर त्वचा का फटना, केराटोइस और त्वचा का कैंसर, फेफड़े और मूत्राशय का कैंसर और नाड़ी से सम्बन्धित रोग आदि। दूसरी परेशानियाँ जैसे मधुमेह, दूसरे अंगों का कैंसर, संतानोत्पत्ति से सम्बन्धित गड़बड़ियाँ आदि के मामले भी देखे गए हैं।
भारत में कितने राज्य आर्सेनिक प्रभावित हैं?
पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, असम, नागालैंड, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में आर्सेनिक का प्रभाव पाया गया है। ज्यादा प्रभावित राज्य पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड हैं।
 चर्चा में क्यों?
आर्सेनिक को हम जहर मानते हैं। यह वाकई इंसानी शरीर के अलावा कई अन्य प्राणियों के लिए विष है। लेकिन अब वाशिंगटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि अब प्रशांत महासागर में ऐसे जीवाणु मिले हैं, जो आर्सेनिक की ही सांस लेते हैं।
समुद्र की गहराई में जहां ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य होती है, में इसका पता चला है। यह शोध वाशिंगटन विश्वविद्यालय के शोध दल ने किया है।
इस शोध दल की जैकलीन सैंडर्स ने कहा कि इस निष्कर्ष के बाद अब हम आर्सेनिक को पूरी तरह हानिकारक नहीं मान सकते हैं क्योंकि यह भी किसी के काम तो आ रहा है।
जैकलीन सैंडर्स ने इस शोध प्रबंध को नेशनल एकाडेमी ऑफ साइंस में प्रकाशित किया है।
प्रोफसर गैबियेली रोकैप का कहना है कि समुद्र में आर्सेनिक की मौजूदगी का पता पहले से था। लेकिन कोई जीवाणु इससे सांस लेता है, इसकी पुष्टि अब हो रही है।
शोध के दौरान समुद्र की गहराई के बीच अनुसंधान करने वालों ने पाया है कि इसमें कुछ हिस्सा ऐसा भी है जहां ऑक्सीजन की मौजूदगी के प्रमाण ही नहीं मिलते।
इस इलाके में भी अगर जीवन है तो वह निश्चित तौर पर वहां मौजूद आर्सेनिक के भरोसे है। इस शोध के नमूनों को मेक्सिको के इलाके से एकत्रित किया गया था।
इन नमूनों की गहन जांच से यह भेद खुला कि ऐसे किस्म के जीवाणु ऊर्जा को ग्रहण कर उसे भोजन में तब्दील कर लेते हैं। यह सामान्य जीवन से बिल्कुल उल्टा चक्र है।
इंसान तथा अन्य जानवर भोजन ग्रहण कर उसे ऊर्जा में बदलते हैं।
इस क्रम में दो जेनेटिक रास्तों का भी पता चला है, जिनकी मदद से ऊर्जा से भोजन प्राप्त करने का काम किया जाता है।
दो किस्म के जीवन में आर्सेनिक के अणुओं से ऊर्जा हासिल कर उसे भोजने में तब्दील करने की क्षमता है। समुद्र की गहराई में ऑक्सीजन रहित इलाके में जीवन इसी पद्धति पर आधारित है।
वैसे वहां तथा आस-पास मौजूद जीवन के बीच आर्सेनिक से जीवन यापन करने वालों की आबादी एक प्रतिशत से भी कम है।
इन जीवाणुओं के पाये जाने के बाद वैज्ञानिक प्राचीन पृथ्वी की स्थिति को भी आंक रहे हैं।
याद रहे कि एक विशाल उल्कापिंड के टकराने के बाद पृथ्वी का उस वक्त का वातावरण ही बदल गया था।
उस दौर के सबसे शक्तिशाली और आक्रामक प्राणी डायनासोर भी इसी उल्कापिंड की चपेट में पल भर में मारे गये थे। अनेक प्रजातियां इस विस्फोट से पूरी तरह विलुप्त हो गयी थी।
उसके बाद पृथ्वी का माहौल बदलते हुए यहां नये सिरे से जीवन की उत्पत्ति हुई थी। उस दौरान भी धरती पर ऑक्सीजन बहुत कम था।
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति होने के बाद जब फोटो संश्लेषण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई तो कार्बन डाईऑक्साइड से ऑक्सीजन बनने लगा।
इसके बाद भी इस वायुमंडल में ऑक्सीजन की प्रचुरता हो पायी है। इसलिए इन जीवाणुओं के अध्ययन से भी प्राचीन पृथ्वी की संरचना के बारे में काफी कुछ जानकारी मिल सकती है।
आर्सेनिक आधारित यह जीवन प्राचीन पृथ्वी की कड़ी हो सकती है। प्रशांत महासागर की शोध में सामने आयी नई किस्म की जानकारी 
इस शोध से जुड़े वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि समुद्र का जीवन बदलने और ऑक्सीजन कम होने की स्थिति में शायद यह जीवाणु भी अपनी वंशवृद्धि कर लेंगे।
जैसे जैसे ऑक्सीजन कम होता जाएगा, ऐसे जीवाणुओं की आबादी बढ़ती चली जाएगा। लिहाजा प्राचीन पृथ्वी से इनका क्या संबंध है, इस बारे में अभी और शोध किये जाने की जरूरत है।
वैज्ञानिक वैसे भी मान रहे हैं कि जिस तेजी से पर्यावरण बिगड़ रहा है, उससे समुद्र के अंदर ऑक्सीजन की कमी होना एक स्वाभाविक बात है।
ऐसे में इस श्रेणी के जीवन किस तरीके से विकसित हो पाते हैं, इस पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।

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